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अ॒पां त्वेम॑न्त्सादयाम्य॒पां त्वोद्म॑न्सादयाम्य॒पां त्वा॒ भस्म॑न्त्सादयाम्य॒पां त्वा॒ ज्योति॑षि सादयाम्य॒पां त्वाय॑ने सादयाम्यर्ण॒वे त्वा॒ सद॑ने सादयामि समु॒द्रे त्वा॒ सद॑ने सादयामि। सरि॒रे त्वा॒ सद॑ने सादयाम्य॒पां त्वा॒ क्षये॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ सधि॑षि सादयाम्य॒पां त्वा॒ सद॑ने सादयाम्य॒पां त्वा॑ स॒धस्थे॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ योनौ॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ पुरी॑षे सादयाम्य॒पां त्वा॒ पाथ॑सि सादयामि। गाय॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा सादया॒म्यानु॑ष्टुभेन त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ पाङ्क्ते॑न त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि ॥५३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒पाम्। त्॒वा। एम॑न् सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम् त्वा॒ ओद्म॑न्। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। भस्म॑न्। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। ज्योति॑षि। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। अय॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒र्ण॒वे। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। स॒मु॒द्रे। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। स॒रि॒रे। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। क्षये॑। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। सधि॑षि। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि। अ॒पाम्। त्वा॒। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। योनौ॑। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। पुरी॑षे। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। पाथ॑सि। सा॒द॒या॒मि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। पाङ्क्ते॑न। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒ ॥५३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:53


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पढ़नेवालों को पढ़ानेवाले क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! जैसे शिक्षा करनेवाला मैं (अपाम्) प्राणों की रक्षा के निमित्त (एमन्) गमनशील वायु में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) जलों की (ओद्मन्) आर्द्रतायुक्त ओषधियों में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापना करता हूँ, (अपाम्) प्राप्त हुए काष्ठों की (भस्मन्) राख में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूँ, (अपाम्) व्याप्त हुए बिजुली आदि अग्नि के (ज्योतिषि) प्रकाश में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (अपाम्) अवकाशवाले (अयने) स्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) बैठाता हूँ, (सदने) स्थिति के योग्य (अर्णवे) प्राणविद्या में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूँ, (सदने) गमनशील (समुद्रे) मन के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) सम्बद्ध करता हूँ, (सदने) प्राप्त होने योग्य (सरिरे) वाणी के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूँ, (अपाम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थों के सम्बन्धी (क्षये) घर में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) अनेक प्रकार के व्याप्त शब्दों के सम्बन्धी (सधिषि) उस पदार्थ में कि जिससे अनेक शब्दों को समान यह जीव सुनता है अर्थात् कान के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (सदने) अन्तरिक्षरूप स्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (सधस्थे) तुल्यस्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (योनौ) समुद्र में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (अपाम्) जलों की (पुरीषे) रेती में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (अपाम्) जलों के (पाथसि) अन्न में (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरणा करता हूँ, (गायत्रेण) गायत्री छन्द से निकले (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के साथ (त्वा) तुझको (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मन्त्र से विहित (छन्दसा) शुद्ध अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (जागतेन) जगती छन्द में कहे (छन्दसा) आनन्दायक अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूँ, (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप् मन्त्र में कहे (छन्दसा) शुद्ध अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरणा करता हूँ और (पाङ्क्तेन) पङ्क्ति मन्त्र से प्रकाशित हुए (छन्दसा) निर्मल अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरित करता हूँ, वैसे ही तू वर्त्तमान रह ॥५३ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि सब पुरुषों को और सब स्त्रियों को वेद पढ़ा और जगत् के वायु आदि पदार्थों की विद्या में निपुण करके उन को उन पदार्थों से प्रयोजन साधने में प्रवृत्त करें ॥५३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाध्येतृजनाध्यापकाः किमुपदिशेयुरित्याह ॥

अन्वय:

(अपाम्) प्राणानां रक्षणे (त्वा) त्वाम् (एमन्) एति गच्छति तस्मिन् वायौ (सादयामि) स्थापयामि (अपाम्) जलानाम् (त्वा) (ओद्मन्) ओषधिषु (सादयामि) (अपाम्) प्राप्तानां काष्ठादीनाम् (त्वा) (भस्मन्) भस्मन्यभ्रे। अत्र सर्वत्र सप्तमीलुक् (सादयामि) (अपाम्) व्याप्नुवतां विद्युदादीनाम् (त्वा) (ज्योतिषि) विद्युति (सादयामि) (अपाम्) अन्तरिक्षस्य (त्वा) (अयने) भूमौ (सादयामि) (अर्णवे) प्राणे (त्वा) (सदने) स्थातव्ये (सादयामि) (समुद्रे) मनसि (त्वा) (सदने) गन्तव्ये (सादयामि) (सरिरे) वाचि (त्वा) (सदने) प्राप्तव्ये (सादयामि) (अपाम्) प्राप्तव्यानां पदार्थानाम् (त्वा) (क्षये) चक्षुषि (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (सधिषि) समानान् शब्दान् शृणोति येन तस्मिन् श्रोत्रे (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (सदने) दिवि (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (सधस्थे) अन्तरिक्षे (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (योनौ) समुद्रे (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (पुरीषे) सिकतासु (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (पाथसि) अन्ने (सादयामि) (गायत्रेण) गायत्रीनिर्मितेन (त्वा) (छन्दसा) स्वच्छेनार्थेन (सादयामि) (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप्प्रोक्तेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) (जागतेन) जगत्युक्तेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप्कथितेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) (पाङ्क्तेन) पङ्क्तिप्रकाशितेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) संस्थापयामि। [अयं मन्त्रः शत०७.५.२.४६-६१ व्याख्यातः] ॥५३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! यथा शिक्षकोऽहमपामेमंस्त्वा सादयाम्यपामोद्मंस्त्वा सादयाम्यपां भस्मंस्त्वा सादयाम्यपां ज्योतिषि त्वा सादयाम्यपामयने त्वा सादयाम्यर्णवे सदने त्वा सादयामि, समुद्रे सदने त्वा सादयामि, सरिरे सदने त्वा सादयाम्यपां क्षये त्वा सादयाम्यपां सधिषि त्वा सादयाम्यपां सदने त्वा सादयाम्यपां सधस्थे त्वा सादयाम्यपां योनौ त्वा सादयाम्यपां पुरीषे त्वा सादयाम्यपां पाथसि त्वा सादयामि, गायत्रेण छन्दसा त्वा सादयामि, त्रैष्टुभेन छन्दसा त्वा सादयामि, जागतेन छन्दसा त्वा सादयाम्यानुष्टुभेन छन्दसा त्वा सादयामि, पाङ्क्तेन छन्दसा त्वा सादयामि, तथैव वर्तस्व ॥५३ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिः सर्वान् पुरुषान् स्त्रियश्च वेदानध्याप्य जगत्स्थानां वाय्वादिपदार्थानां विद्यासु निपुणीकृत्य तेभ्यः प्रयोजनसाधने प्रवर्तनीयाः ॥५३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी सर्व स्त्री-पुरुषांना वेद शिकवून या जगातील वायू इत्यादी पदार्थांच्या विद्येत निपुण करावे. त्या पदार्थाद्वारे प्रयोजन सिद्ध करण्यास प्रवृत्त करावे.